परमात्मा से प्रार्थना है कि हिंदी का मार्ग निष्कंटक करें। - हरगोविंद सिंह।
भारत में दो हिंदुस्तान हैं (विविध)    Print  
Author:डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik
 

कोरोना के इन 55 दिनों में मुझे दो हिंदुस्तान साफ-साफ दिख रहे हैं। एक हिंदुस्तान वह है, जो सचमुच कोरोना का दंश भुगत रहा है और दूसरा हिंदुस्तान वह है, जो कोरोना को घर में छिपकर टीवी के पर्दों पर देख रहा है।

क्या आपने कभी सुना कि आपके किसी रिश्तेदार या किसी निकट मित्र का कोरोना से निधन हो गया है ? मैंने तो अभी तक नहीं सुना। क्या आपने सुना कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री की तरह हमारा कोई नेता, कोई मंत्री, कोई सांसद या कोई विधायक कोरोना का शिकार हुआ है ? हमारे सारे नेता अपने-अपने घरों में दुबके हुए हैं। देश के लगभग हर प्रांत में मेरे सैकड़ों-हजारों मित्र और परिचित हैं लेकिन सिर्फ एक संपन्न परिवार के सदस्यों ने बताया कि उनके यहां तीन लोग कोरोना से पीड़ित हो गए हैं। मैंने पूछा कि यह कैसे हुआ ? उनका अंदाज था कि यह उनके घरेलू नौकर, ड्राइवर या चौकीदार से उन तक पहुंचा होगा। यानि कोरोना का असली शिकार कौन है ? वही दूसरावाला हिंदुस्तान ! इस दूसरे हिंदुस्तान में कौन रहता है ? किसान, मजदूर, गरीब, ग्रामीण, कमजोर और नंगे-भूखे लोग ! वे चीन या ब्रिटेन या अमेरिका जाकर कोरोना कैसे ला सकते थे ? उनके पास तो दिल्ली या मुंबई से अपने गांव जाने तक के लिए पैसे नहीं होते। यह कोरोना भारत में जो लोग जाने-अनजाने लाए हैं, वे उस पहले हिंदुस्तान के वासी हैं। वह है, इंडिया ! वे हैं, देश के 10 प्रतिशत खाए-पीए-धाए हुए लोग और जो हजारों की संख्या में बीमार पड़ रहे हैं, सैकड़ों मर रहे हैं, वे लोग कौन हैं ? वे दूसरे हिंदुस्तान के वासी हैं। वे ‘इंडिया' के नहीं, ‘भारत' के वासी हैं। इन भारतवासियों में से 70-80 करोड़ ऐसे हैं, जो रोज कुआ खोदते हैं और रोज़ पानी पीते हैं। उनके पास महीने भर की दाल-रोटी का भी बंदोबस्त नहीं होता। इन्हीं लोगों को हम ट्रकों में ढोरों की तरह लदे हुए, भयंकर गर्मी में नंगे पांव सैकड़ों मील सफर करते हुए, थककर रेल की पटरी पर हमेशा के लिए सो जाने के लिए और सड़कों पर दम तोड़ते हुए रोज देख रहे हैं। सरकारें उनके लिए भरसक मदद की कोशिशें कर रही हैं, लेकिन उनसे भी ज्यादा भारत की महान जनता कर रही है। आज तक एक भी आदमी के भूख से मरने की खबर नहीं आई है। यदि सरकारें, जैसा कि मैंने 25 मार्च को ही लिखा था, प्रवासी मजदूरों को घर-वापसी की सुविधा दे देतीं तो हमें आज पत्थरों को पिघलाने वाले ये दृश्य नहीं देखने पड़ते। आज भी ‘भारत' के हर वासी के लिए सरकार अपने अनाज के भंडार खोल दे और कर्जे देने की बजाय दो-तीन माह के लिए दो सौ या ढाई सौ रुपए रोज का जीवन-भत्ता दे दे तो हमारे ‘इंडिया' की सेवा के लिए यह भारत फिर उठ खड़ा होगा।

- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश